गुरुवार, 5 जून 2014

इंसानी प्रलय और प्रभु की चिंता

जयजीत अकलेचा/ Jayjeet Aklecha


‘भगवान, आज तो आप बहुत खुश होंगे।’ देवलोक में नारदजी ने कुटिल मुस्कान के साथ पूछा।
‘इंसान ने खुश रहने का कारण छोड़ा ही कहां है? लेकिन आपने ऐसा क्यों कहा?’ भगवान ने विस्मित भाव से पूछा।
‘वो इसलिए कि नीचे जमीन पर आपका भव्य मंदिर बन रहा है, उससे आपकी जय-जयकार होगी, आपकी प्रतिष्ठा चहुं दिशाओं में फैलेगी, और क्या।’
‘आप किसकी बात कर रहे हैं देवर्षि ?
‘रामपुर नगर के बगीचे में बन रहे विशालकाय मंदिर की।’
‘लेकिन वह बगीचा तो बच्चों के लिए है, वहां हमारा क्या काम?’
‘अब इसमें इतना भी अचरज न करें। यह कोई पहली बार तो हो नहीं रहा। कहां-कहां के नाम गिनाऊं, हर काॅलोनी के बगीचों में आपके नाम पर मंदिर मिल जाएंगे।’
‘लेकिन बच्चे खेलेंगे कहां?’ भगवान ने नारदजी की ओर सवाल उछाला।
‘वाह, आपने भी क्या बात कह दी प्रभु! क्या बच्चे आजकल खेलते भी हैं? स्कूल, ट्यूशन, कार्टून चैनल, वीडियो गैम्स से फुरसत मिले तो बच्चे खेलेंगे ना? हमारा-आपका जमाना गया प्रभु।’
भगवान की चिंता बढ़ती जा रही थी। उन्हें गुस्सा भी आने लगा था। उन्होंने पूछा, ‘जो हमने बनाया है, फूल-पत्ती, घास-फूस, उसे खत्म करके कांक्रीट के ढांचे क्यों बना रहा है इंसान, वह भी हमारे नाम पर? क्या अब उसे हरियाली पसंद नहीं है?’
‘पसंद है, खूब पसंद है, लेकिन जरा दूसरे टाइप की।’
‘मैं समझा नहीं देवर्षि।’
‘इंसान अब कांक्रीट के जंगलों में हरियाली ढूंढ़ता है। अब उसे हरे-भरे पेड़-पौधे नहीं, हर-हरे नोट पसंद है। आज वही उसकी हरियाली है।’ नारदजी ने अपना ज्ञान बघारते हुए कहा। फिर उन्होंने भ्रष्ट उद्योगपतियों, नेताओं, अफसरों सहित न जाने कितने लोगों के नाम गिना दिए। नारदजी ने प्रभु को समझाया कि कैसे ये सारे लोग नई हरित क्रांति के जनक बन गए हैं। अन्य कई लोग इनके नक्शेकदम पर चलने को आतुर हैं। कई तो चलने भी लगे हैं।
‘बस-बस, और नहीं...’ प्रभु ने नारदजी को रोक लिया। फिर मासूमियत के साथ बोले, ‘उम्मीद बाकी है, आज विश्व पर्यावरण दिवस है। कई लोग ऐसे अवसरों पर जुटेंगे और पर्यावरण को बचाने की कसम खाएंगे। लगता है लोगों को कुछ तो सुध आई है।’
‘प्रभु, इसमें इतना भी खुश होने की जरूरत नहीं है। अपनी हरियाली के चक्कर में इंसान ने पहले ही इतना विनाश कर लिया है कि अब उसके पास ऐसे दिवस मनाने के अलावा और कोई चारा ही कहां बचा है!’ इतना कहकर नारदजी वहां से चलने को तत्पर हुए।
‘कहां के लिए रवानगी?’ भगवान ने पूछा।
‘ऐसे ही एक कार्यक्रम में मुझे भी विशेष अतिथि बनाया गया है। औपचारिकता तो निभानी होगी।’ नारायण-नारायण कहते हुए देवर्षि वहां से निकल पड़े।
प्रभु गंभीर चिंता में हैं - ‘प्रलय लाने का अधिकार तो मेरा है। लेकिन यह इंसान खुद क्यों प्रलय लाने पर तुला हुआ है! और क्या मैं इसे रोक पाउंगा! हे भगवान!‘ 


कार्टून: गौतम चक्रवर्ती

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