बुधवार, 18 जून 2014

प्रभाकर माचवे का व्यंग्य - एक कुत्ते की डायरी

प्रभाकर माचवे/ Prabhakar Machwe
 प्रभाकर माचवे , prabhakar machwe

मेरा नाम 'टाइगर' है, गो शक्‍ल-सूरत और रंग-रूप में मेरा किसी भी शेर या 'सिंह' से कोई साम्‍य नहीं। मैं दानवीर लाला अमुक-अमुक का प्रिय सेवक हूँ; यद्यपि वे मुझे प्रेम से कभी-कभी थपथपाते हुए अपना मित्र और प्रियतम भी कह देते हैं। मतलब यह है कि लालाजी का मुझ पर पुत्रवत प्रेम है। नीचे मैं अपने एक दिन के कार्यक्रम का ब्‍यौरा उपस्थित करता हूँ -
6 बजे सवेरे - घर की महरी बहुत बदमाश हो गई है। मेरी पूँछ पर पैर रखकर चली गई। अंधी हो गई क्‍या? और ऊपर से कहती है - अँधेरा था। किसी दिन काट खाऊँगा। गुर्र-गुर्र... अच्‍छा-चंगा हड्डीदार सपना देख रहा था और यह महरी आ गई - इसने मेरे सपने के स्‍वर्ण-संसार पर पानी फेर दिया। ... फिर सो गया।
7 बजे - कोई कम्‍बख्‍त आ ही गया। नवागन्‍तुक दिखाई देता है। बहुत भूँका - पर नहीं माना। जरूर परिचित होगा। जाने दो - अपने बाबा का क्‍या जाता है?
8 बजे - नाश्‍ता-पानी। आज ब्रेकफास्‍ट की चाय पर बहुत गर्मागर्म बहस हो रही है! मालिक कह रहे हैं कि इन मजदूरों ने आजकल जहाँ देखो वहाँ सिर उठा रखा है। कुचलना होगा इन्‍हें! मालिक के मित्र बतला रहे थे कि हड़तालों के मारे तबाही मची हुई है। ऐसा कहते हुए उन्‍होंने अपनी नई 'सुपरफाइन' धोती से चश्‍मे की काँच पोंछ कर साफ की थी।
10 बजे - एक नए ढंग के जानवर से मुलाकात हो गई। यह 'फट् फट् फट्' आवाज बहुत करता है, नथुनों से धुआँ उगलता मालिक चाहता है तब रुकता है, चाहता है तब सरपट दौड़ता है। मैंने भरसक उसकी नकल में भूँकने और दौड़ने की कोशिश की - मगर यह किसी विदेश से आया हुआ प्राणी जान पड़ता है। जाने दो, अपने को विदेशियों से क्या पड़ी है?
11 बजे - भोजन। इस संबंध में इतना ही कहना पर्याप्‍त होगा कि अच्‍छे-अच्‍छे तनखावाले बाबुओं को जो नसीब न होगा, ऐसा उम्‍दा पकवान हमें मिल जाता है। सब भगवान की लीला है। जब वह खाता हूँ तो भूल जाता हूँ कि मेरे गले में कोई पट्टा भी है या मुझे भी कभी मालिक ठोकर मारता है।
12 बजे से 3 बजे तक - विश्रांति।
3 बजे - सहसा किसी का स्‍वर। निश्‍चय ही वह मालिक की बड़ी लड़की का मुलाकाती, भूरे-भूरे बालोंवाला तरुण है! वह मखमल की पैंट पहनता है, पहले मैंने उसे किसी चितकबरी बिल्‍ली का बदन ही समझा
5 बजे - बाहर फिर घूमने के लिए चला। मालकिन मेमसाहिबा खास कपड़े पहने, ऊँची एड़ी के जूते, रंगीन साड़ी वगैरह के साथ थीं। मेरी भी चेन खास ढंग की थी। यह तभी पहनाई जाती है जब मालकिन किसी उत्‍सव-विशेष या बाइस्‍कोप वगैरह में शामिल होती हैं।
6 से 8.30 बजे तक - एक सफेद पर्दे पर हिलती-बोलती तस्‍वीरें देखीं। अरे, तो यह आदमी जो अपने आपको बहुत सभ्‍य समझता है सो कुछ नहीं है। जैसे हम लोगों में प्रेमातुरता होती है, वैसे ही इनके चलचित्रों की नायक-नायिकाएँ दिखाती हैं। अच्‍छा हुआ मैंने यह दृश्‍य देख लिया। मेरा स्‍वप्‍न भंग हो गया। मानव जाति को मैं बड़ा आदर्श समझता था - परंतु वैसी कोई विशेष बात नहीं।
9 बजे - सोया। क्‍योंकि फिर सवेरे जागना है, वही पूँछ हिलाना है - तब डबलरोटी का टुकड़ा शायद मिले; और ज्‍यादा खुशामद करने पर दूध भी मिल सकता है!

Short version of एक कुत्ते की डायरी  
(Courtesy :  www.hindisatire.com)

 प्रभाकर माचवे , prabhakar machwe

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