शनिवार, 21 जून 2014

शरद जोशी का व्यंग्य - रेल यात्रा

शरद जोशी/ Sharad Joshi

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रेल विभाग के मंत्री कहते हैं कि भारतीय रेलें तेजी से प्रगति कर रही हैं। ठीक कहते हैं। रेलें हमेशा प्रगति करती हैं। वे बम्‍बई से प्रगति करती हुई दिल्‍ली तक चली जाती हैं और वहाँ से प्रगति करती हुई बम्‍बई तक आ जाती हैं। अब यह दूसरी बात है कि वे बीच में कहीं भी रुक जाती हैं और लेट पहुँचती हैं। आप रेल की प्रगति देखना चाहते हैं तो किसी डिब्‍बे में घुस जाइए। बिना गहराई में घुसे आप सच्‍चाई को महसूस नहीं कर सकते।
जब रेलें नहीं चली थीं, यात्राएँ कितनी कष्‍टप्रद थीं। आज रेलें चल रही हैं, यात्राएँ फिर भी इतनी कष्‍टप्रद हैं। यह कितनी खुशी की बात है कि प्रगति के कारण हमने अपना इतिहास नहीं छोड़ा। दुर्दशा तब भी थी, दुर्दशा आज भी है। ये रेलें, ये हवाई जहाज, यह सब विदेशी हैं। ये न हमारा चरित्र बदल सकती हैं और न भाग्‍य।
भारतीय रेलें चिन्‍तन के विकास में बड़ा योग देती हैं। प्राचीन मनीषियों ने कहा है कि जीवन की अंतिम यात्रा में मनुष्‍य ख़ाली हाथ रहता है। क्‍यों भैया? पृथ्‍वी से स्‍वर्ग तक या नरक तक भी रेलें चलती हैं। जानेवालों की भीड़ बहुत ज्‍़यादा है। भारतीय रेलें भी हमें यही सिखाती हैं। सामान रख दोगे तो बैठोगे कहाँ? बैठ जाओगे तो सामान कहाँ रखोगे? दोनों कर दोगे तो दूसरा कहाँ बैठेगा? वो बैठ गया तो तुम कहाँ खड़े रहोगे? खड़े हो गये तो सामान कहाँ रहेगा? इसलिए असली यात्री वो जो हो खाली हाथ। टिकिट का वज़न उठाना भी जिसे कुबूल नहीं। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने ये स्थिति मरने के बाद बतायी है। भारतीय रेलें चाहती हैं वह जीते-जी आ जाए। चरम स्थिति, परम हल्‍की अवस्‍था, ख़ाली हाथ्‍ा, बिना बिस्‍तर, मिल जा बेटा अनन्‍त में! सारी रेलों को अन्‍तत: ऊपर जाना है।
टिकिट क्‍या है? देह धरे को दण्‍ड है। बम्‍बई की लोकल ट्रेन में, भीड़ से दबे, कोने में सिमटे यात्री को जब अपनी देह तक भारी लगने लगती है, वह सोचता है कि यह शरीर न होता, केवल आत्‍मा होती तो कितने सुख से यात्रा करती। 

 रेल-यात्रा करते हुए अक्‍़सर विचारों में डूब जाते हैं। विचारों के अतिरिक्‍त वहाँ कुछ डूबने को होता भी नहीं। रेल कहीं भी खड़ी हो जाती है। खड़ी है तो बस खड़ी है। जैसे कोई औरत पिया के इंतज़ार में खड़ी हो। उधर प्‍लेटफ़ॉर्म पर यात्री खड़े इसका इंतज़ार कर रहे हैं। यह जंगल में खड़ी पता नहीं किसका इंतजार कर रही है। खिड़की से चेहरा टिकाये हम सोचते रहते हैं। पास बैठा यात्री पूछता है - "कहिए साहब, आपका क्‍या ख़याल है इस कण्‍ट्री का कोई फयूचर है कि नहीं?"
"पता नहीं।" आप कहते हैं, "अभी तो ये सोचिए कि इस ट्रेन का कोई फयूचर है कि नहीं?"
फिर एकाएक रेल को मूड आता है और वह चल पड़ती है। आप हिलते-डुलते, किसी सुंदर स्‍त्री का चेहरा देखते चल पड़ते हैं। फिर किसी स्‍टेशन पर वह सुंदर स्‍त्री भी उतर जाती है। एकाएक लगता है सारी रेल ख़ाली हो गयी। मन करता है हम भी उतर जाएँ। पर भारतीय रेलों में आदमी अपने टिकिट से मजबूर होता है। जिसका जहाँ का टिकिट होगा वह वहीं तो उतरेगा। उस सुन्‍दर स्‍त्री का यहाँ का टिकिट था, वह यहाँ उतर गयी। हमारा आगे का टिकिट है, हम वहाँ उतरेंगे।
भारतीय रेलें कहीं-न-कहीं हमारे मन को छूती हैं। वह मनुष्‍य को मनुष्‍य के क़रीब लाती हैं। एक ऊँघता हुआ यात्री दूसरे ऊँघते हुए यात्री के कन्‍धे पर टिकने लगता है। बताइए ऐसी निकटता भारतीय रेलों के अतिरिक्‍त कहाँ देखने को मिलेगी? आधी रात को ऊपर की बर्थ पर लेटा यात्री नीचे की बर्थ पर लेटे इस यात्री से पूछता है - यह कौन-सा स्‍टेशन है? तबीयत होती है कहूँ - अबे चुपचाप सो, क्‍यों डिस्‍टर्ब करता है? मगर नहीं, वह भारतीय रेल का यात्री है और भारतभूमि पर यात्रा कर रहा है। वह जानना चाहता है कि इस समय एक भारतीय रेल ने कहाँ तक प्रगति कर ली है?
आधी रात के घुप्‍प अँधेरे में मैं भारतभूमि को पहचानने का प्रयत्‍न करता हूँ। पता नहीं किस अनजाने स्‍टेशन के अनचाहे सिग्‍नल पर भाग्‍य की रेल रुकी खड़ी है। ऊपर की बर्थवाला अपने प्रश्‍न को दोहराता है। मैं अपनी ख़ामोशी को दोहराता हूँ। भारतीय रेलें हमें सहिष्‍णु बनाती हैं। उत्तेजना के क्षणों में शांत रहना सिखाती हैं। मनुष्‍य की यही प्रगति है।
Short version of रेल यात्रा 


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